"फ्लॉप फ़िल्मों के बाद अब 'भावनात्मक ब्लैकमेल' की स्क्रिप्ट! "जानकी" बनाम "कमिने" जब निर्देशक की जुबान ने खो दी मर्यादा..."


 रिपोर्टर: शेष यादव | बिलासपुर TIME

छत्तीसगढ़ी फ़िल्म इंडस्ट्री को जिस सम्मान के लिए पहचाना जाना चाहिए, वहां आज सस्ती सहानुभूति, घटिया बयानबाज़ी और प्रचार के लिए पवित्र नामों का अपमान किया जा रहा है।
मामला है मोहित साहू की फिल्म ‘जानकी भाग 1’ का, जिसे सेंसर बोर्ड ने इसके टाइटल और चरित्र चित्रण पर आपत्ति जताते हुए प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया।

लेकिन दुखद यह नहीं कि फिल्म रोकी गई — दुखद ये है कि फिल्म निर्माता और निर्देशक अब इस मुद्दे को ‘पुरुष प्रधानता’, ‘रचनात्मक हत्या’ और ‘कमीने’ जैसे शब्दों के सहारे भटकाने की कोशिश कर रहे हैं।

 मोहित साहू की “रचनात्मक हत्या” वाली थ्योरी — या फिर 'मासूम बनने का पुराना ड्रामा'?

मुंबई से दिए गए बयान में मोहित साहू ने कहा:

 “सेंसर बोर्ड कह रहा है ‘जानकी’ नाम हटाओ, तभी प्रमाणपत्र मिलेगा। मैं अपनी कहानी की हत्या नहीं कर सकता।”


लेकिन ज़रा ठहरिए —
अगर आपकी "कहानी" इतनी पवित्र थी, तो क्या आपने "जानकी" नाम पर कोई रिसर्च किया?
क्या आपने भगवान राम की पत्नी “माता जानकी” का नाम किसी संवेदनशील रूप से इस्तेमाल किया, या फिर सस्ती लोकप्रियता के लिए भावनाओं से खेला?

जनता पूछ रही है: नाम ‘जानकी’ है, पर आपकी नीयत में ‘चालाकी’ क्यों झलक रही है?

 और निर्देशक कौशल उपाध्याय का बयान — ‘कमीने’ नाम होता तो चल जाता!

अब बात करते हैं निर्देशक कौशल उपाध्याय की — जो शायद सिनेमा कम, सनसनी ज्यादा चाहते हैं।
उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा:

 “आज समझ आया कि ‘जानकी’ से बेहतर नाम ‘कमीने’ होता। वाह सेंसर बोर्ड, वाह…”

ये बयान नहीं, पवित्रता के नाम पर बेहूदगी है।

एक तरफ आप “जानकी” जैसे देवी-तुल्य नाम को बचाने की बात कर रहे हैं, और दूसरी ओर ‘कमीने’ से तुलना कर रहे हैं?
कौन सी ‘रचनात्मक स्वतंत्रता’ में देवी के नाम को गालियों के समीप रखा जाता है?

 ये सिर्फ सेंसर बोर्ड का मामला नहीं, समाजिक जिम्मेदारी का भी सवाल है

सेंसर बोर्ड ने कोई रोक बिना कारण नहीं लगाई है।

धार्मिक संदर्भ पर संवेदनशीलता

नाम के प्रयोग की मर्यादा

पात्र की छवि और स्क्रीन पर प्रस्तुतिकरण

ये सब बातों को देखकर ही बोर्ड ने प्रमाणपत्र रोका है, और यही प्रक्रिया हर फिल्म के लिए होती है। लेकिन जब फिल्म की पूरी स्क्रिप्ट और प्रस्तुति ही जनभावनाओं से टकराने वाली हो, तो आप सेंसर नहीं, खुद को दोष दें।

 "रचनात्मक स्वतंत्रता" की आड़ में बाजारू मानसिकता का प्रचार बंद करें

रचनात्मकता का मतलब ये नहीं कि

आप "जानकी" जैसे नाम का बाज़ार भाव तय करें

सेंसर बोर्ड को गालियाँ दें

विरोध करने पर ‘पुरुष प्रधान’ कहें

और अंत में सोशल मीडिया पर भावुक बन जाएं

ये सब दर्शाता है कि ये फिल्म नहीं, एक प्रचार आधारित प्रोजेक्ट था, जिसका उद्देश्य सिनेमा नहीं, सेंसेशन बनाना था।

निष्कर्ष:
 “सेंसर बोर्ड को दोष मत दीजिए,
पहले खुद के ‘रचनात्मक’ इरादों की जांच कीजिए।”

जो निर्देशक “कमीने” और “जानकी” को एक तराजू में तौल दे,
जो निर्माता हर बार फिल्म से पहले विवादों में घुस जाए,
उन्हें जनता अब पहचान चुकी है।

बिलासपुर TIME — जहाँ झूठ का प्रचार नहीं, सच का पर्दाफ़ाश होता है।

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