"आलोचना पर भड़के कलाकार, लेकिन क्या यही है कला का आत्मबल"?


गढ़कलेवा में इकट्ठा होकर निर्देशक की नाकाम फिल्म पर आई समीक्षा से नाराज हुए कलाकार, लेकिन क्या आलोचना से घबराना ही विकल्प है?

रायपुर के ऐतिहासिक गढ़कलेवा परिसर में शुक्रवार को कुछ ऐसा नज़ारा देखने को मिला जो छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्री की मानसिकता पर एक बड़ा सवाल खड़ा करता है। दुर्ग, भिलाई और रायपुर से जुड़े कलाकार एकजुट होकर एक पत्रकार ताबीर हुसैन के विरोध में इकट्ठा हुए। वजह? उन्होंने फिल्म "तोर संग मया लागे" की समीक्षा करते हुए लिखा कि "निर्देशक उत्तम तिवारी को अब निर्देशन छोड़ देना चाहिए।"

इस बात से इतने सारे कलाकार आहत हो गए कि सभी एक साथ प्रदर्शन पर उतर आए — लेकिन यह घटनाक्रम एक गहरे आत्ममंथन की ज़रूरत को उजागर करता है।

KRK की आलोचना को बॉलीवुड वाले कैसे लेते हैं, क्या सीखा जा सकता है?

बॉलीवुड इंडस्ट्री में कमाल आर खान (KRK) जैसे समीक्षक दशकों से मौजूद हैं जो न सिर्फ फिल्मों की बल्कि कलाकारों की भी हद से ज्यादा रोस्टिंग करते हैं। वे कभी सलमान को घेरते हैं, तो कभी करण जौहर या आमिर खान को।

लेकिन क्या कभी बॉलीवुड के कलाकार एक जगह इकट्ठा हुए, प्रदर्शन किया?

नहीं।
बल्कि उन्होंने खुद को बेहतर साबित करने में लगन दिखाई, मेहनत की, और आलोचना को कभी-कभी इग्नोर तो कभी सहज लेकर आगे बढ़ते रहे। यही अंतर संवेदनशीलता और परिपक्वता के बीच की रेखा खींचता है।

 क्या छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्री आलोचना से सीखने के बजाय उससे डरने लगी है?

कलाकारों को आलोचना से डर क्यों?

फिल्म समीक्षा एक स्वतंत्र प्रक्रिया है। अगर कोई फिल्म नहीं चलती, तो यह पूरी तरह जायज़ है कि कोई पत्रकार या समीक्षक यह सवाल उठाए कि क्या निर्देशक को खुद पर पुनर्विचार करना चाहिए?

यह बात व्यक्तिगत हमले जैसी कतई नहीं है, बल्कि एक कला के स्तर पर उठाया गया सवाल है।

गढ़कलेवा में इकट्ठा होकर विरोध करना न केवल बचकाना प्रतीत होता है, बल्कि इससे छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्री की असुरक्षा और अल्प-सहिष्णुता भी उजागर होती है।

क्या कलाकार आलोचना से भाग रहे हैं?

गढ़कलेवा में जुटे कलाकार — पुष्पेंद्र सिंह, अशोक तिवारी, श्वेता शर्मा, अमित जैन, उर्वशी साहू, ऊषा विश्वकर्मा समेत कई नाम — ने कहा कि "निजी टिप्पणी न की जाए", लेकिन पत्रकार का बयान पूरी तरह समीक्षा के दायरे में था।

पत्रकार ताबीर हुसैन ने जवाब में कहा:

"गढ़कलेवा कोई कोर्ट नहीं है, मैं क्यों वहां जाऊं? अगर कोर्ट से बुलावा आता तो जरूर जाता।"

यह एक संवैधानिक और लोकतांत्रिक उत्तर है, जो बताता है कि पत्रकारिता कोई चाटुकारिता नहीं, बल्कि समाज का आईना होती है।

इंडस्ट्री को चाहिए आईना, न कि आक्रोश

छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्री को विकास की रफ्तार पकड़नी है तो उसे आलोचना को सम्मान देना सीखना होगा।
गढ़कलेवा में इकट्ठा होना हल नहीं है — यह कला की पराजय है।

अगर कोई पत्रकार सवाल उठाता है, तो जवाब शब्दों और सिनेमा के स्तर पर दीजिए, भीड़ जुटाकर नहीं।

निष्कर्ष: सिनेमा का सम्मान आलोचना स्वीकारने से होता है, डरकर भागने से नहीं।

यदि कलाकार आलोचना पर प्रदर्शन करेंगे तो सवाल उठना तय है — क्या उन्हें सिर्फ तालियाँ चाहिए या सच सुनने की ताकत भी है?
कला की असली गरिमा तब है जब वह विरोध के बीच भी मुस्कुराकर कह सके — "चलो, अगली बार बेहतर करेंगे।"

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